रग़ … !!
इश्क़ से गुज़रा हूँ मैं , इश्क़ को मैं जानता हूँ ,
रंग़ों में बहता है ये , रग़ इसकी मैं पहचानता हूँ !
रवि ; दिल्ली : ९ अक्टूबर २०१३
इश्क़ से गुज़रा हूँ मैं , इश्क़ को मैं जानता हूँ ,
रंग़ों में बहता है ये , रग़ इसकी मैं पहचानता हूँ !
रवि ; दिल्ली : ९ अक्टूबर २०१३
हमने नगमें गुनगुनाने की , क़सम खायी है ,
ज़िन्दगी भर मुस्कुराने की , क़सम खायी है !
दी किसी ने चोट या , दिया हो धोखा कभी ,
हमने तो सभी वो भुलाने की , क़सम खायी है !
दी बड़ों ने जो दुआयें , और दोस्तों ने प्यार ,
उसे ना ज़िन्दगी में गवाँने की , क़सम खायी है !
कैसे करूँ ख़ुदा शुक्रिया , कितना बख्शा यहाँ ,
नेमत को सवाब में लुटाने की , क़सम खायी है !
कोई बड़ा बने ऊँचा बने , क्या क्या बने यहाँ ,
मैंने तो इंसान ही बन पाने की , क़सम खायी है !
रवि ; दिल्ली : ८ अक्टूबर २०१३
जुगनू आँखों में सजायें , तो ग़ज़ल होती है ,
दिया अश्कों से जलायें , तो ग़ज़ल होती है !
यक़ीं की धार हो और , हो प्यार का झरना ,
फिर अगर डूब भी जायें , तो ग़ज़ल होती है !
सुना है बेतकल्लुफ़ है तेरा , आईने से हुस्न ,
तू आईना मुझको बनाये , तो ग़ज़ल होती है !
तेरे ख़तों को जलाया था , जिस जगह हमने ,
कभी उधर से गुज़र जायें , तो ग़ज़ल होती है !
ख़ुशबू आती है इक हवाओं में , तेरे आने से ,
मेरी साँसें भी महक जायें , तो ग़ज़ल होती है !
अपने पहलू में तुझे पाऊँ मैं , हर रात यहाँ ,
ख़ुदा से तू भी ये ही चाहे , तो ग़ज़ल होती है !
रवि ; दिल्ली : ७ अक्टूबर २०१३
हमने नगमें गुनगुनाने की क़सम खायी है ,
ज़िन्दगी भर मुस्कुराने की क़सम खायी है !
रवि ; दिल्ली : ७ अक्टूबर २०१३
जुगनू आँखों में सजायें , तो ग़ज़ल होती है ,
दिया अश्क़ों से जलायें , तो ग़ज़ल होती है !
रवि ; दिल्ली : ६ अक्टूबर २०१३
जब भी बिजली , घटा पे छाती है ,
चेहरे को तू , ज़ुल्फों से छुपाती है !
शर्म को अपनी , सजा के गालों पे ,
जामे हुस्न तू , नज़रों से पिलाती है !
पहले खुद ही , सिमट मेरे सीने में ,
इश्क़ को तू , फिर ख़ूब सताती है !
बाहों में दे मेरी , खुशबू सा बदन ,
साँसों में तू , इक नशा मिलाती है !
टूटती साँसों के , दहकते आलम में ,
होठों से तू , प्यास और बढ़ाती है !
रवि ; दिल्ली : ५ अक्टूबर २०१३
जब भी बिजली , घटा पे छाती है ,
चेहरे को तू , ज़ुल्फों से छुपाती है !
रवि ; दिल्ली : ४ अक्टूबर २०१३
तू ज़िन्दगी में मेरी , कुछ इस तरह से आई है ,
ख़्वाब से आस तक , हर पल में तू ही छाई है !
तेरी सूरत आँखों में , कुछ इस क़दर समाई है ,
कि चेहरे पे मेरे तेरी , अब दिखती परछांई है !
तू मुस्कुरा के चल दी , जैसे ही हमको देखा ,
तेरी तो अदा ठहरी , मेरी जान निकल आई है !
बस मैं तो एक क़तरा हूँ , कैसे ना डूब जाता ,
समंदर से तेरी ज़्यादा , आँखों की गहराई है !
हिचकी क्यूँ ना रूकती , दिन रातों को मेरी ,
मेरा तसव्वुर है ये , या याद तुझको आई है !
रवि ; दिल्ली : २ अक्टूबर २०१३
तू ज़िन्दगी में मेरी , कुछ इस तरह से आई है ,
ख़्वाब से आस तक , हर पल में तू ही छाई है !
रवि ; दिल्ली : १ अक्टूबर २०१३
कभी डूबा तो कभी उतराता रहा ,
मैं उम्र भर उनको याद आता रहा !
रवि ; दिल्ली : २८ सितम्बर २०१३
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