सवाल !!
प्यार की तनहाई से ,
यौवन के उपवन तक ,
सपनों के आँचल से ,
सुधियों के बंधन तक ,
तुमसे ही पूछता हूँ मैं – ऐ मेरे हमक़दम !
क्या तुम मेरे साथ हो ??
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
प्यार की तनहाई से ,
यौवन के उपवन तक ,
सपनों के आँचल से ,
सुधियों के बंधन तक ,
तुमसे ही पूछता हूँ मैं – ऐ मेरे हमक़दम !
क्या तुम मेरे साथ हो ??
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
मेरी सूरत देखकर मुझे कौन पहचान सकेगा
तेरी ही परछांई नज़र आएगी मेरी सूरत में !
रवि ; जनवरी १९८१
वो ख़्वाबों के सारे महल ढह गए ,
हसरतें ही बचीं ज़िन्दगी के लिए ,
अब जीने की कोई उमंगें नहीं ,
ज़िन्दगी भी नहीं ज़िन्दगी के लिए !
रवि ; लखनऊ : मार्च १९८०
दिल ही दिल में किसी पे मैं मरता रहा ,
बस तन्हाइयों में ही आहें मैं भरता रहा ,
इज़हारे इश्क ना कर सका उससे कभी ,
वो इंतज़ार ही तो था जो मैं करता रहा !
रवि ; रुड़की : जनवरी 1981
सुधियों के पतझड़ में ,
यादों का सिमटना ,
कल्पना के खंडहर में ,
सपनों का संवरना !
क्या यही प्यार है ?
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
हर पल एक प्यार की चाह में ,
इस दिल को बेक़रार मैंने देखा है !
एक एक पल उम्र से भी बड़ा था ,
एक ऐसा भी इंतज़ार मैंने देखा है !
जब भी सोचा है आपके बारे में ,
लगता है हसीं ख़्वाब मैंने देखा है !
में आपके और आप मेरे करीब थे ,
ये एक ख़्वाब बार बार मैंने देखा है !
और उन ख़्वाबों से उठकर देखने पे ,
दूर तक आपको ही जनाब मैंने देखा है !
शबनम को फूलों के आस पास देख ,
यूँ लगा आपको उदास मैंने देखा है !
नज़र मिलते ही आपसे कुछ यूँ लगा ,
आप नहीं एक आफताब मैंने देखा है !
आप नहीं तो फूलों से दुश्मनी सी थी ,
पर अब काँटों को खुशबूदार मैंने देखा है !
हर कली को संवारने वाले गुलज़ार का ,
वो एक लाजबाब शाहकार मैंने देखा है !
आपकी आँखों के इस गहरे समंदर में ,
आपने लिए प्यार ही प्यार मैंने देखा है !!
रवि ; रुड़की : १० मई १९८१
तुम नहीं तो लगते हैं फूल भी दुश्मन मुझे ,
पर तुम्हारे आते ही काँटों में भी खुशबू होगी !
रवि ; जयपुर : अक्टूबर ७८
ना जाने वो कैसी नज़र देखते हैं ,
हम तो बस उनकी नज़र देखते हैं ,
नज़र की नज़र से हजारों ये बातें ,
नज़र का नज़र पे असर देखते हैं !
ना जाने …..
नज़र का ये उनका मिलाना तो देखो ,
मिला के नज़र का झुकाना तो देखो ,
नज़र को नज़र से चुराते हुए भी ,
शराफ़त की वो एक नज़र देखते हैं !
ना जाने ….
रवि ; रुड़की : मई १९८१
जीवन की परिभाषा में ,
सांसों की अभिलाषा में ,
देखता हूँ तुमको मैं ,
स्पंदन की आशा में !
मैं तुम्हारा और तुम ,
सदा मेरा हो स्पंदन ,
प्रेम का , जीवन का ,
सांसों का अभिनन्दन !
छूता है मुझे जीवन ,
जब छूती हो तुम !
सांसों की गिनती में ,
सपनों की विनती में ,
मैंने कहा मैं तुम्हारा ,
तुम बोली हो मेरी तुम !!
रवि ; गुडगाँव : नवम्बर २००३
अपनी तनहाइयों पर हैरान होता हूं मैं ,
अध चुके ख़्वाबों के बीच खोता हूं मैं ,
पुकारूं किसको और कब तक पुकारूं ,
थककर ख़ुद की आवाज़ से सोता हूं मैं !
रवि ; दिल्ली : जुलाई २०१२
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