ज़िन्दगी !
ज़िन्दगी से मेरी कल मुलाक़ात है ,
सवालाें में उलझी मेरी रात है !
रवि ; दिल्ली ; १६ जुलाई २०१३
ज़िन्दगी से मेरी कल मुलाक़ात है ,
सवालाें में उलझी मेरी रात है !
रवि ; दिल्ली ; १६ जुलाई २०१३
ज़िन्दगी से मेरी कल मुलाक़ात है ,
सवालाें में उलझी मेरी रात है !
लहू बह रहा लाल सबमें मगर ,
फिर क्यूँ बनाई अलग जात है !
यक़ीं इंसा कैसे किसी का करे ,
हरेक बैठा लगाये यहाँ घात है !
कितना भी आगे कोई निकले मगर,
वक्त क्यूँ सबको देता यहाँ मात है !
ग़र इश्क़ रुसवा हुआ हो कभी ,
क्यूँ उम्र अश्क़ों की बरसात है !
क्यूँ दिलों के पैमाने छोटे हुए ,
कहते हैं चीज़ों की इफ़रात है !
ज़िन्दगी से मेरी कल मुलाक़ात है ,
सवालाें में उलझी मेरी रात है !!
रवि ; दिल्ली : १६ जुलाई २०१३
वक़्त की ये कैसी बिसात है ,
कहीं दिन तो कहीं रात है !
रवि : दिल्ली ; १५ जुलाई २०१३
करके ख़ुद को दिल के हवाले , दी उसने क़ुर्बानी है ,
इश्क़ में डूबी उसकी नज़र , लगती हर बार रूहानी है !
सीने पे झेली है जब भी , दुनिया की मँझधार ये मैंने ,
तब तब याद आयी बचपन की , माँ की कोई कहानी है !
आँखों से जो पिघले आँसू , जा पहुँचे उनकी जु़बाँ तक ,
बात मरने की अपनी मैंने , सुनी ख़ुद उनकी ज़ुबानी है !
जब जब आँखों में हैं उतरे , मंज़र गुज़रे सालों के ,
तब तब बचपन की मुझको , लगती हर बात सुहानी है !
मैं सुलगूँ इस दुनिया में , या फिर मैं हो जाऊँ दफ़न ,
फ़र्क़़ तुम्हें लगता हो शायद , पर मेरे लिये बेमानी है !
रवि ; दिल्ली ; १४ जुलाई २०१३
मैं हूँ आग़ का दरिया , वो बरसाता पानी है ,
इस बादल से मेरी , बहुत पहचान पुरानी है !
रवि ; दिल्ली : १३ जुलाई २०१३
दुनिया की उलझी बातों को , मन में सुलझाता हूँ मैं ,
ज़ुल्फ़ों के साये में तेरे , ख़्वाबों में खो जाता हूँ मैं !
ज़ख़्म दिये अपनों ने इतने , छलनी मेरा सीना है ,
पर तेरी आँखों की ख़ातिर , हर दम मुसकाता हूँ मैं !
मौसम सूखा रिश्ते सूखे , सूखे हैं हालात मेरे ,
पर तेरे होठों की मस्ती , पे यूँ इतराता हूँ मैं !
मैं हूँ तेरा तू है मेरी , ये दोनों का वादा है ,
फिर क्यूँ बीती रात गये , मन में घबराता हूँ मैं !
टूटे जाने कितने तारे , हाथों की लकीरों में ,
फिर भी ओस की बूँदों को , होठों से सहलाता हूँ मैं !
रवि ; दिल्ली : १२ जुलाई २०१३
दुनिया की उलझी बातों को , मन में सुलझाता हूँ मैं ,
ज़ुल्फ़ों के साये में तेरे , ख़्वाबों में खो जाता हूँ मैं !
रवि ; दिल्ली : ११ जुलाई २०१३
आज उनकी याद में , क्यूँ मैं इतना रोता हूँ ,
खोये बरस बहुत पहले , आज क्यूँ मैं खोता हूँ !
झूठीं थीं वो सांसे उनकी , आँहें भी वो झूठीं थीं ,
उनको सीने से लगा के , आज क्यूँ मैं सोता हूँ !
टूटे थे वो तारे सारे , आसमां भी सुर्ख़ था ,
ख़्वाब में उस आसमां को , आज क्यूँ मैं बोता हूँ !
मैली हैं वो यादें सारी , और निशाँ भी गहरे हैं ,
वक़्त के टूटे खण्डहर को , आज क्यूँ मैं ढोता हूँ !
दर्मियाँ हैं फ़ासले अब , फ़ासले भी स्याह हैं ,
क़ुर्बां फिर भी आशिक़ी पे , आज क्यूँ मैं होता हूँ !
रवि ; दिल्ली : ६ जुलाई २०१३
आज उनकी याद में , क्यूँ मैं इतना रोता हूँ ,
खोये बरस बहुत पहले , आज क्यूँ मैं खोता हूँ !
रवि ; दिल्ली : ४ जुलाई २०१३
क़हर का अंजाम हमेशा , क़हर ही होता है ,
तो क्यूँ ज़हर ये इसां , क़ुदरत में बोता है ?
और जब टूटती हैं हदें , क़ुदरत के सब्र की ,
फिर क्यूँ क़हर से घबरा , इंसा यूँ रोता है ?
रवि ; दिल्ली : २२ जून २०१३
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