आस !
सवेरे की आस में
मैंने चांदनी को भुला दिया
लेकिन कैसा सवेरा ?
वहां तो केवल
जलते सूरज की धूप थी !
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
सवेरे की आस में
मैंने चांदनी को भुला दिया
लेकिन कैसा सवेरा ?
वहां तो केवल
जलते सूरज की धूप थी !
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
आज भी याद है
मुझे वो दिन
जब हम और तुम
मिला करते थे
खूबसूरत वादियों में !
चमक होती थी
तुम्हारी आँखों में
और होठों पर
एक मुस्कराहट !
लेकिन अचानक
मैं
बेरोज़गार हो गया |
तुम
मिलती हो मुझसे
आज भी
मगर औपचारिकता वश
तुम्हारी आँखों में
ना वो चमक होती है
और ना ही
होठों पर वो मुस्कराहट !
कितना
फ़ासला कर दिया है
तुम्हारे और मेरे बीच
मेरी
कुछ दिनों की
इस बेरोज़गारी ने !!
रवि ; लखनऊ : सितम्बर 1978
याद है मुझे वो वक़्त
जब मेरे दिन और रात
बिताये नहीं बीतते थे
ज़िन्दगी का एक एक पल
उम्र से भी बड़ा था
क्योंकि तब मेरे पास
वक़्त ही वक़्त था !
फिर अचानक –
ये अहसास हुआ कि
वक़्त बहुत कम है !
उस दिन से मेरे
दिन लम्बे लम्बे डग भरते हैं
और रातें
रातें शायद दौड़ती हैं !
अब तो ज़िन्दगी भी
लगती है बहुत छोटी सी
सिर्फ़ दो चार दिनों की
शायद ….
वक़्त बहुत कम है !!
रवि ; रुड़की : जनवरी १९८१
सपनों में घूमता
अचानक एक रात
मैं पहुंचा
एक अनजाने देश में –
सफ़ेद बर्फ़ के पहाड़
पहाड़ों के बीच
मस्त झूमती नदियाँ
दूर तक रंग बिरंगे
फूलों की कतारें
हरे भरे पेड़ों पर
खूब चहकते पक्षी
सभी कुछ सुन्दर था
बहुत सुन्दर !
और वहीँ
दूर फूलों के बीच
एक प्यारा सा बच्चा –
मखमली धूप में चमकते
उसके सुनहरे बाल
खूबसूरत छोटे हाथ
उसके क़ीमती कपड़े
उसकी किलकारियां और
प्यार से भरी वो आँखें
ये बताती थीं
वो ख़ुश है बहुत ख़ुश !
लेकिन तभी
किलकारियों के बीच
सिसकियों की वो आवाज़
मेरा सपना टूटा ….
सामने यथार्थ खड़ा था –
एक भूखा नंगा बच्चा
पेट कहीं
पीठ तक धंसा हुआ
आँखों में
खारे पानी की बूंदे लिए
वो निरीह सा
मुझे घूर रहा था !
शायद …
उसकी आँखों से ढलकते आंसू
ये पूछ रहे थे –
क्या सपने सच होते हैं ??
रवि ; रुड़की : अगस्त १९८१
गर्मियों की तपती दोपहर
अकाल की चपेट में एक गाँव
और
पानी की एक एक बूँद को तरसते लोग !
लेकिन फिर भी
कुछ लोगों के घरों में
पानी से भरे कुछ बर्तन
शायद
बुरे वक़्त के लिए रखे हैं !
ऐसे में
प्यास से तड़पती
बुढ़िया की ज़बान पर
एक ही नाम है – पानी !
और उसका बूढ़ा
हाथ में कटोरा लिए
सारे शहर में
घूम चुका है
भीख मांगता
दो बूँद पानी की !
लेकिन किसी ने भी
उसे पानी ना दिया
प्यास बुझाने के लिए !
और जब तक
हताश बूढ़ा लौटा
ख़ाली कटोरा लिए
तब तक –
प्यास से तड़प कर
बुढ़िया ने दम तोड़ दिया !
बूढ़े ने लाश को
सड़क पर डाल दिया
और
लोगों ने आपने बटुओं से
चन्द सिक्के फ़ेंक दिये
बुढ़िया की लाश पर !
और बूढ़े ने
कफ़न खरीदकर
दफ़ना दिया अपनी बुढ़िया को !
और
उस बदनसीब लाश के
वहां से हटते ही
लोगों ने उस जगह को
ढेरों पानी से
रगड़ रगड़ कर धो डाला !!
रवि ; रुड़की : जुलाई १९८१
दोनों ही हैं एक प्यार के अंदाज़ !
बड़ी दूर तक जाती है
ख़ामोशी की ये आवाज़ –
ये पहाड़ , ये घाटियाँ , ये आसमान
ये फ्होल और फूलों की महक
सभी तो चुप हैं , सभी ख़ामोश !
ख़ामोशी का ये अंदाज़ ही
एक प्यार का इक़रार है !
ये बादल , ये पंछी , ये झरने
ये भंवरे और उनकी गुनगुनाहट
सभी खुश हैं , सभी मस्त !
आवाज़ का ये अंदाज़ ही
एक प्यार का इज़हार है !
प्यार के ये दो अंदाज़ –
चाहे ख़ामोशी का इक़रार
या आवाज़ का इज़हार
मतलब तो केवल प्यार है –
प्यार , प्यार और प्यार !!
रवि ; रुड़की : जून १९८१
मेरे जीवन के आँगन में
एक निराश अँधेरा
ना जाने कब हो सवेरा
कोई यहाँ एक दीप जला दो !!
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
प्यार की तनहाई से ,
यौवन के उपवन तक ,
सपनों के आँचल से ,
सुधियों के बंधन तक ,
तुमसे ही पूछता हूँ मैं – ऐ मेरे हमक़दम !
क्या तुम मेरे साथ हो ??
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
सुधियों के पतझड़ में ,
यादों का सिमटना ,
कल्पना के खंडहर में ,
सपनों का संवरना !
क्या यही प्यार है ?
रवि ; रुड़की : अक्टूबर १९८१
जीवन की परिभाषा में ,
सांसों की अभिलाषा में ,
देखता हूँ तुमको मैं ,
स्पंदन की आशा में !
मैं तुम्हारा और तुम ,
सदा मेरा हो स्पंदन ,
प्रेम का , जीवन का ,
सांसों का अभिनन्दन !
छूता है मुझे जीवन ,
जब छूती हो तुम !
सांसों की गिनती में ,
सपनों की विनती में ,
मैंने कहा मैं तुम्हारा ,
तुम बोली हो मेरी तुम !!
रवि ; गुडगाँव : नवम्बर २००३
Recent Comments