मनदीप !
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नभ
धरती
उज्जवल
मनदीप !
जीवन
भोर
समय
सन्दीप !!
रवि ; दिल्ली ; २४ फ़रवरी २०१३
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नभ
धरती
उज्जवल
मनदीप !
जीवन
भोर
समय
सन्दीप !!
रवि ; दिल्ली ; २४ फ़रवरी २०१३
हरियाली से बहुत दूर
दूर चट्टानों के पास
पत्थरों के बीच
बिन पत्तियों का
वो सूखा पेड़
कुछ कह रहा है …
शायद अपनी आपबीती !
कभी उस पर भी
फूल थे
पत्तियाँ थीं
हवा का
वो ठंडा कोमल झोंका
उसके अँग अँग में
उन्माद भर देता था !
फिर
अचानक एक दिन
एक तूफ़ान ने
उसे अँशत: उखाड़ फेंका ,
और धीरे धीरे
उसकी पत्तियाँ और फूल
सूखकर झड़ गये
और
वो रह गया
एक ढाँचा मात्र !
तभी से –
उसे प्रतीक्षा है
हवा के ठँंडे कोमल झोंके की नहीं
बल्कि
एक नये तूफ़ान की …
जो उसे
पूर्णत: उखाड़ फेंके
क्योंकि
वो अब जीवन (?) नहीं चाहता !
लेकिन अब
दूर कहीं तक –
तूफ़ान की कोई उम्मीद नहीं !
वो
अभी भी खड़ा है
प्रतीक्षा रत
दूर पत्थरों के बीच
अकेला , तनहा
एक सूखा पेड़ !!
रवि ; रुड़की : नवम्बर १९८१
मरुथल
त्रृष्णा
छाया
प्यास !
जीवन
प्रेम
स्वप्न
प्रयास !!
रवि ; दिल्ली : १ फ़रवरी २०१३
माँ कहती है
धनवान नहीं गुणवान बनो !
मर्यादा का मान करो
स्व-सामर्थ्य का ध्यान धरो
जितनी चादर उतने पैर
स्वयं में प्रतिमान बनो !
धनवान नहीं गुणवान बनो !
निष्काम भाव स्वभाव करो
बातों में सदभाव भरो
भक्ति भरा उन्मुक्त भाव
प्रभुत्व का गुणगान बनो !
धनवान नहीं गुणवान बनो !
मुखोचित बस बात करो
अन्यत्र ना समवाद करो
गुण देखो उनको सीखो
गुणों का स्वाभिमान बनो !
धनवान नहीं गुणवान बनो !
ना स्वयंता ध्यान करो
द्विजस्वप्न का मान धरो
करो सिंचाई अपना जान
उनका तुम सम्मान बनो !
धनवान नहीं गुणवान बनो !
गुरू गोविन्द निर्मल दोहा
ना केवल ध्यान धरो
बिना गुरू मुक्ति असंभव
गुरू स्रद्धा सम्मान बनो !
धनवान नहीं गुणवान बनो !
धन नहीं बनाता धनवान
दानी बन धनवान बनो
परिभाषा के चरितार्थ हेतु
स्वयं ही परोपकारवान बनो !
धनवान नहीं गुणवान बनो !
माँ कहती है
धनवान नहीं गुणवान बनो !
रवि ; दिल्ली : १७ जनवरी २०१३
इस जीवन की बेजोड़ शपथ में ,
रात्रि पहर के निर्जन पथ में ,
नभ से कोई तारा छूटा है ,
या कोई ये नियम अनूठा है ?
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
दौड़ रहा हूँ हर दिन प्रतिपल ,
हर क्षण करता मुझसे ही छल ,
मैं क्या सोचूं परिभाषा सच की ,
या फिर वर्तमान सब झूठा है ?
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
हर दिन देता मैं जिसको जल ,
आँचल से ढकता मैं प्रति पल ,
वो स्नेह बीज है बरसों देखा ,
क्यूं कोपल फिर ना फूटा है ?
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
क्षीण जीव होता प्रति पल में ,
समय बुध्दि के इस छल में ,
क्या ये बात है कोई अनहोनी ,
या नियम यहाँ कोई टूटा है ?
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
हूँ लहू लुहान क्षत विक्षत मैं ,
रक्त वेश ओढ़ अब अक्षत मैं ,
अब मैं भागूं तो कैसे भागूँ ,
मुझसे बँधा रक्त का खूँटा है !
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
रक्षा करता मैं धूप विष्टि से ,
जब तब आई क्रुद्ध सृष्टि से ,
फिर भी ना दिखता आभार कहीं ,
अब कोई शख्स न छूटा है !
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
सब कहते मेरी जड़ सशक्त है ,
इन शिराआें में भरपूर रक्त है ,
फिर क्यूँ नहीं फलते बीज मेरे ,
क्या भाग्य ने मुझको लूटा है ?
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !
सुख दुख रहते सबके जीवन में ,
जैसे बादल होता नभ पवन में ,
फिर सूर्य किरन है दुर्गम क्यूँ ,
या फिर ईश्वर मुझसे रूठा है ?
आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !!
रवि ; दिल्ली : २६ दिसम्बर २०१२
Badal gayi ye duniya saari,
Badala sara ab kissa hai;
बदल गयी ये दुनिया सारी ,
बदला सारा अब क़िस्सा है ;
Manav se danav mein badala,
Jo badan ka mere hissa hai !
मानव से दानव में बदला ,
जो मेरे बदन का हिस्सा है !
Diya janm usko jab maine,
Tha doodh ka adhikar diya;
दिया जन्म उसको जब मैंने ,
था दूध का अधिकार दिया ;
Uski kimat bhool ke usne,
Aaj mujhse hee vyabhichar kiya !
उसकी क़ीमत भूल के उसने ,
आज मुझसे ही व्याभिचार किया !
Layi jab duniya mein usko,
Lage aur bandhan feeke the ;
लायी जब दुनिया में उसको ,
लगे और बन्धन फीके थे ;
Sikhlaya tha use Sabhi wo ,
Jin sanskaron maine seekhe the !
सिखलाया था उसे सभी वो ,
जो संस्कार मैंने सीखे थे !
Socha tha Kabhi ban purush,
Ye matritv ka samman kare;
सोचा था कभी बन पुरूष ,
ये मातृत्व का सम्मान करे ;
Bholl ke bhi is jag mein wo na,
Naari ka apmaan kare !
भूलकर भी इस जीवन में ,
ना नारी का अपमान करे !
Dhaka jis aanchal se isko,
Us aanchal ko isne raunda hai;
ढका जिस आँचल से इसको ,
वही आंचल इसने रौंदा है ;
Dhoodh ko dhikkar hai mere,
Mujhe Krodh itna kaundha hai!
दूध को धिक्कार है मेरे ,
मुझे क्रोध इतना कौंधा है !
Aise bete ki karni par ,
Ma ne uski chitkar kiya ;
ऐसे बेटे की करनी पर ,
माँ ने उसकी चीत्कार किया ;
Chir haran ek naari ka nahin,
Usne Naari jaati se balatkar kiya !
चीरहरन कर इक नारी का ,
हर नारी का बलात्कार किया !
Usmein main meri beti bhi hai;
Kaise main ise maaph Karun ?
उसमें मैं मेरी बेटी भी है ,
कैसे मैं इसे माफ़ करूँ ?
Kyun diya beta mujhe aisa ,
Ab Kisase main fariyad karun!
क्यूँ दिया बेटा मुझे ऐसा ,
अब किससे मैं फ़रियाद करूँ ?
Kya maangun prabhu ab tumse ,
Aisa koi ab sutra bane ;
क्या माँगू प्रभु अब तुमसे ,
ऐसा कोई अब सूत्र बने ;
Jag mein karta ho balatkar ,
Koi Maa na Aisa putr Jane !
जग में करता हो बलात्कार ,
कोई माँ ना ऐसा पुत्र जने !
Aise purushon ko janm de,
Meru Kokh barbaad hoti hai;
ऐसे पुरूषों को जन्म दे ,
मेरी कोख बदनाम होती है ;
Dekh ke vahasi beton ko,
Har maa apne mein roti hai!
देख के वहसी बेटों को ,
हर माँ अपने में रोती है !!
रवि ; दिल्ली : २४ दिसम्बर २०१२
वायु के प्रहार में भी,
ओस की फुहार में भी,
वो राह पे चलता रहा,
दिया मेरा जलता रहा !
बाती उसकी चुक रही,
झंझावत देह दुख रही,
पर तम से लड़ता रहा,
दिया मेरा जलता रहा !
धरा का वो रूप था,
सृष्टि का स्वरूप था,
अग्नि से खिलता रहा,
दिया मेरा जलता रहा !
नींद में वो स्वप्न सा,
सत्य में वो नग्न सा,
संास सा चलता रहा,
दिया मेरा जलता रहा !
साहस का ये चिन्ह रहा,
कायरता से भिन्न रहा,
अमरत्व में मिलता रहा,
दिया मेरा जलता रहा !
धरती से आकाश तक,
मेरी अन्तिम श्वास तक,
जीवन वो भरता रहा,
दिया मेरा जलता रहा !!
रवि ; दिल्ली : ११ नवम्बर २०१२
नित्य
होता हूँ पवित्र
मैं
अपने अस्तित्व में
आेस की बूँद सा
रात्रि के
अंन्तिम पहर की
शांत
सौम्य
अनकही
अनछुई
आकाश से आती
प्रेम को बहाती
धरा को नहलाती
उषा का मान
प्रभात का सम्मान
ईष्ट देव सी
सत्य मेव सी
पवन में आच्छादित समान
साहस का अदम्य प्रमाण
किन्तु
है कोमल जल
सूर्य संदेश में
है होती ओझल
परन्तु
अविचल दीक्षा
तम की प्रतीक्षा
ना कोई समीक्षा
आती है पुनः
हर बार
और देती है
रात्रि पहर का
स्नेहागान
पवित्र स्नान
नित्य !!
रवि ; सिंगापुर : २९ अक्टूबर २०१२
मैं कौन हूं
मैं कहाँ से हूं
इस सवाल का मैं वजूद हूं ।
कभी दूर से
तो कभी पास से
मैं ख़ुद में सदा मौजूद हूं ।
चाहे वफ़ा करे
या फिर जफा करे
मेरा ज़मीर तो मेरे संग है ।
तो क्या हुआ
जो ये ग़र कभी
बेइन्तहा ही मुझ से तंग है ।
मैं क्या करूं
और क्यूँ मैं करूं
क्या ज़मीर की मैं आवाज़ हूं ?
या वो सुनूं
जो मेरा दिल कहे
क्योंकि मैं तो उसका साज़ हूं ?
दिल और ज़मीर
है दोनों की ज़िरह
या फिर उनकी कोई चाल है ?
क्या बज रहा
यूंही उनके बीच में
या मेरी ये सच्ची ताल है ?
रवि ; अहमदाबाद : १४ जून २०१२
प्यार की हद से परे
सपनों की तनहाई से
तुमने ही
मुझे जगाया था
उस काली , अँधेरी
तूफानी रात में भी
तुमने ही
प्यार का दीप जलाया था
और सचमुच
एक किरण जागी थी
प्यार की !
और फिर
मैंने चाह था
कुछ कहना तुमसे !
मगर अचानक
तभी
एक सितारा टूटा
और
मैं रूक गया ,
फिर
टूटते सितारों से
आसमान भर गया
और मैं चुप रहा ,
फिर
टूटते सितारों की रात
तब्दील हो गयी
एक सुबह में
लेकिन
मैं कुछ ना कह सका !
मेरी बात
बनके बात रह गयी
एक आधी अधूरी बात !
काश , पूरी ना होती
वो काली , स्याह , अँधेरी , अधूरी रात ! !
रवि ; रुड़की : नवम्बर 1982
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