सोच ! ……. Soch !
करता है तू इनायत सब पे ,
पर कहता नहीं कभी भी ,
फिर ये बन्दे तेरे जहाँ के ,
अपने किये को गाते क्यूँ हैं ?
तू करता है ये मेहरबानियाँ ,
वो समझते हैं उनका हक है ,
पर छोटी अपनी मेहरबानी को ,
दूजे पे यूँ जताते क्यूँ हैं ?
कहते हैं वो ये पाया उन्होंने ,
दुनिया को ये बताते क्यूँ हैं ,
अंजाम है दुआओं का सबकी ,
ये कहने में शर्माते क्यूँ हैं ?
जो पाया है वो भी है तेरा ,
दुनिया है दो दिनों का बसेरा ,
दिल में ये जानते हैं सभी फिर ,
इस बात को झुठलाते क्यूँ हैं ?
रवि ; अहमदाबाद : २७ सितम्बर २०११
Karta hai tu inayat sabpe ,
Par kahta nahin kabhi bhi ,
Phir ye bande tere jahan ke ,
Apne kiye ko gate kyun hain ?
Tu karta hai ye meharbaaniyan ,
Wo samjhate hain unka haq hai ,
Par chhoti apni meharbaani ko ,
Duje pe yun jataate kyun hain ?
Kahte hain wo ye paya unhone ,
Duniya ko ye batate kyun hain ,
Anzaam hai ye duaon ka sabki ,
Ye Kahne mein sharmaate kyun hain ?
Ja paya hai wo bhi hai tera ,
Duniya hai do dinon ka basera ,
Dil mein ye jaante hain sabhi phir ,
Is baat ko jhuthlaate kyun hain ?
Ravi ; Ahmedabad ; 27 September 2011..