जब से कारोबार यहाँ , मज़हब का चला है ,
तब से ना रूका , लाशों का सिलसिला है !

ये सियासी सेकते हैं , जिस आग़ पे रोटियाँ ,
वो आग़ नहीं पाकीज़ा , ग़रीब का घर जला है !

मिटा दो सभी को , जिनका यक़ीं फ़रक़ है ,
घिनौना मज़हब के , ठेकेदारों का फ़ैसला है !

कल लगते थे जहाँ , ईद होली मिलन के मेले ,
अाज सड़कों पे वहाँ , दहशत का क़ाफ़िला है !

बुझाओ चिंगारियों को , जलायेंगी सभी को ,
ना हैवानियत ने बख़्शा , किसी का भला है !

जागेगी इन्सानियत , दिलों में कभी यक़ीनन ,
हर शख़्स ख़ुद को देता , नेकी का हौसला है !

रवि ; दिल्ली : १३ सितम्बर २०१३