तेरे छूने से , मदहोशी मुझको , आई है ,
बड़े बरसों में , बिजली घटा में , छाई है !

मैं तो प्यासा था , सहरा में यूँ , ज़माने से ,
तूने होठों से अपने , प्यास ये , बुझाई है !

यूँ तो देखी हैं , गुलशन में कली , और यहाँ ,
पर एक तू ही है , जो दिल में यूँ , समाई है !

तेरी यादों में , सोया नहीं था मैं , बरसों यहाँ ,
नींद तेरी साँसों की , महक ने आज , उड़ाई है !

तुझको आग़ोश में , लेते ही यूँ , महसूस किया ,
कि तुझको छू के बदन में , आग खुद , लगाई है !

रवि ; दिल्ली : २९ सितम्बर २०१३