…. चेतना !!
मैं मृत हूँ या मैं जीवित हूँ ,
इस बात का कैसे ज्ञान करूँ ?
जब तक ना हो जाये ये निश्चित ,
मैं क्यूँ जीवन पर अभिमान करूँ ?
मृत की परिभाषा क्या है ,
जीवन की अभिलाषा क्या है ,
संवादों के इस घेरे में ,
मैं क्यूँ प्रश्नों से अनुमान करूँ ?
जीव की व्याख्या चेतन है ,
मृत का संयोग अचेतन है ,
जीव चेतना के दर्शन का ,
मैं क्यूं ना वृहद सम्मान करूँ ?
क्या पूर्ण चेतना है मुझ में ,
या मैं अर्धचेतना वासी हूँ ,
जब तक ना जानूँ अन्तर इसका ,
मैं क्यूँ संशय से मरिमाण करूँ ?
यदि तन मेरा बस चेतन है ,
पर मन में भरा अचेतन है ,
तो क्यूँ कहता मैं चेतन स्वयं को ,
मैं क्यूँ ना सत्य का मान करूँ ?
सारी विधा करता मैं तन पर ,
है रिक्त चेतना रहती मन पर ,
अचेतन मन के तन का स्वामी ,
मैं क्यूँ जीवित होने का गान करूँ ?
मैं अर्ध मृत या अर्ध जीवित ,
या चेतना का मैं त्रिशंकु हूँ ,
यदि तन मन का ना दीप जले ,
मैं क्यूँ प्राणों का आह्वान करूँ ?
अब निद्रा से मुझको जगना है ,
अनिद्रा में चेतन भरना है ,
अपने तन मन दोनों ही में ,
मैं क्यूँ ना नवचेतना निर्माण करूँ ?
जब तन मन हो मेरा चेतन ,
और मैं पूर्ण चेतना का स्वामी ,
तब फिर पूर्ण चैतन्य होकर ही ,
मैं क्यूँ ना जीवन से अवसान करूँ ?
रवि ; दिल्ली : ११ सितम्बर २०१३