इस जीवन की बेजोड़ शपथ में ,
रात्रि पहर के निर्जन पथ में ,
नभ से कोई तारा छूटा है ,
या कोई ये नियम अनूठा है ?

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

दौड़ रहा हूँ हर दिन प्रतिपल ,
हर क्षण करता मुझसे ही छल ,
मैं क्या सोचूं परिभाषा सच की ,
या फिर वर्तमान सब झूठा है ?

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

हर दिन देता मैं जिसको जल ,
आँचल से ढकता मैं प्रति पल ,
वो स्नेह बीज है बरसों देखा ,
क्यूं कोपल फिर ना फूटा है ?

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

क्षीण जीव होता प्रति पल में ,
समय बुध्दि के इस छल में ,
क्या ये बात है कोई अनहोनी ,
या नियम यहाँ कोई टूटा है ?

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

हूँ लहू लुहान क्षत विक्षत मैं ,
रक्त वेश ओढ़ अब अक्षत मैं ,
अब मैं भागूं तो कैसे भागूँ ,
मुझसे बँधा रक्त का खूँटा है !

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

रक्षा करता मैं धूप विष्टि से ,
जब तब आई क्रुद्ध सृष्टि से ,
फिर भी ना दिखता आभार कहीं ,
अब कोई शख्स न छूटा है !

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

सब कहते मेरी जड़ सशक्त है ,
इन शिराआें में भरपूर रक्त है ,
फिर क्यूँ नहीं फलते बीज मेरे ,
क्या भाग्य ने मुझको लूटा है ?

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !

सुख दुख रहते सबके जीवन में ,
जैसे बादल होता नभ पवन में ,
फिर सूर्य किरन है दुर्गम क्यूँ ,
या फिर ईश्वर मुझसे रूठा है ?

आज मेरी शाख से एक और पत्ता टूटा है !!

रवि ; दिल्ली : २६ दिसम्बर २०१२