रगों का ख़ून बहाकर भी , ग़र इक़रार होता है ,
उसको तब भी ना कोई , मेरा ऐतबार होता है !

कभी जब तोड़ा था मैने , उस बुनियाद का पत्थर ,
उठना दीवार का तब से , वहाँ दुश्वार होता है !

जो आँखों से निकले , सज़ा के आँसू थे उस दिन ,
है बीता वक़्त पर ये , दर्द बेशुमार होता है !

बुलाना वक़्त को लौटे , नहीं आता मुझे शायद ,
पुकारूँ कितना भी चाहे , पर इन्कार होता है !

जाऊँगा दुनिया से अब तो , इस इल्ज़ाम को लेकर ,
मरना पर झूठ की ख़ातिर , तो बेकार होता है !

रवि ; दिल्ली : २१ सितम्बर २०१३