एक सूना अहसास !!
आँसुओं में घुले हुए
वो गीले ख़्वाब
आँखों में आते ही
गु़म हो जाते हैं
सुबह की ओस की तरह !
वो ओस
जो आसमान को चीरकर
चाँदनी में नहाकर
बरबस भागती हुई
एक पागल सी
धरती की तरफ़ आती है
पर जा गिरती है
कभी दरख़्तों पे
तो कभी सूखी छत पे
कभी घास पे
तो कभी पंखुड़ियों पे
कभी कूड़े के ढेर पे
तो कभी रेग़िस्तानों की रेत पे
कभी अधचुके मकानों पे
तो कभी नाउम्मीद क़ब्रिस्तानों पे
और फिर
यूँ ही सूख जाती है
कभी
सूरज की पहली किरन पे
तो कभी
सड़कों पे
गाड़ियों के पहियों के नीचे
दब कर ग़ुम हो जाती है
बिना धरती को अहसास दिये
अपनी प्यास का
और
उस सूने अहसास का
जो आँसुओं में घुले
ख़्वाबों की तरह
आँखों में ही
ग़ुम हो जाते हैं
एक अधूरी बात लिये
और छोड़ जाते हैं
उन अघखुली आँखों में
एक अधबुझी आस
और
एक सूना अहसास !!
रवि ; दिल्ली : १८ फ़रवरी २०१३
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