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मज़हबों का चलो आज से , कारोबार घटाया जाये ,
इन्सानियत को ज़िन्दगी का , मक़सद बनाया जाये !

भगवान और खुदा में , मिटाया ना फ़र्क़ हमने ,
इन्सानों के दर्मियाँ ही , अब फ़र्क़ मिटाया जाये !

घंटियों और अज़ानों से , ना बेहतर हुईं हैं नस्लें ,
इन्सानियत की दुआ में , अब सर झुकाया जाये !

मज़हब के अगवाइयों ने , मिटाये हैं नूर कितने ,
अब तो दिया अमन का , हर घर जलाया जाये !

है आँखों में ख़ौफ़ कब से , मासूमियत के बदले ,
बचपन के होंठों पे फिर , हँसी को खिलाया जाये !

बंजर से बन गये हैं , इन काँटों से ज़हन सभी के ,
मुहब्बत का हल चला के , फिर गुल खिलाया जाये !