सूरज !
ज़मीं को , आसमां से , मिलाना चाहता हूँ ,
मैं , दिलों के फ़ासले , मिटाना चाहता हूँ !
कितने भी , नश्तर चुभायें हों उन्होंने ,
मैं उन्हे यादकर , बस मुस्कुराना चाहता हूँ ।
उड़े है , वतन की जो मिट्टी , फ़लक पे,
उस धूल को, मैं सेहरा बनाना चाहता हूँ ।
रखा था जिसने मुझे , अपने बदन में ,
उस माँ को , मैं ईश्वर बनाना चाहता हूँ ।
दुनिया के , जो सुलझा दे , सारे अँधेरें ,
मैं , एेसा एक , सूरज उगाना चाहता हूँ ।
रवि ; दिल्ली : ३१ मार्च २०१३