चाहत !
मेरे ग़म मेरी तनहाई को ,
जब से है यूँ चाहा तुमने ,
तभी से मुझे वो तनहाई ,
एक अनजान सी लगती है !
हर लम्हा तबस्सुम की बाहों में ,
हर सांस तरन्नुम की छाँव में ,
हर धड़कन साज़ की महफ़िल में ,
नगमों की बरसात सी लगती है !
मेरी तुम्हारी वो तमाम यादें ,
यादों सी जुडी वो सारी बातें ,
इस रात की उजली छाँव में ,
सपनों की बारात सी लगती है !!
मेरे ग़म मेरी …..
रवि ; रुड़की : १३ दिसंबर 1981