प्रतीक्षा रत !
हरियाली से बहुत दूर
दूर चट्टानों के पास
पत्थरों के बीच
बिन पत्तियों का
वो सूखा पेड़
कुछ कह रहा है …
शायद अपनी आपबीती !
कभी उस पर भी
फूल थे
पत्तियाँ थीं
हवा का
वो ठंडा कोमल झोंका
उसके अँग अँग में
उन्माद भर देता था !
फिर
अचानक एक दिन
एक तूफ़ान ने
उसे अँशत: उखाड़ फेंका ,
और धीरे धीरे
उसकी पत्तियाँ और फूल
सूखकर झड़ गये
और
वो रह गया
एक ढाँचा मात्र !
तभी से –
उसे प्रतीक्षा है
हवा के ठँंडे कोमल झोंके की नहीं
बल्कि
एक नये तूफ़ान की …
जो उसे
पूर्णत: उखाड़ फेंके
क्योंकि
वो अब जीवन (?) नहीं चाहता !
लेकिन अब
दूर कहीं तक –
तूफ़ान की कोई उम्मीद नहीं !
वो
अभी भी खड़ा है
प्रतीक्षा रत
दूर पत्थरों के बीच
अकेला , तनहा
एक सूखा पेड़ !!
रवि ; रुड़की : नवम्बर १९८१