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जब भी बिजली , घटा पे छाती है ,
चेहरे को तू , ज़ुल्फों से छुपाती है !

शर्म को अपनी , सजा के गालों पे ,
जामे हुस्न तू , नज़रों से पिलाती है !

पहले खुद ही , सिमट मेरे सीने में ,
इश्क़ को तू , फिर ख़ूब सताती है !

बाहों में दे मेरी , खुशबू सा बदन ,
साँसों में तू , इक नशा मिलाती है !

टूटती साँसों के , दहकते आलम में ,
होठों से तू , प्यास और बढ़ाती है !

रवि ; दिल्ली : ५ अक्टूबर २०१३