परछाईं
कैसे इलज़ाम दूँ मैं जिंदगी में रौशनी को ,
अब तो परछाईं पर भी मेरा अख्तियार नहीं |
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मेरी परछाईं भी मुझसे खेलती है घट बढ़ के
और मैं यूँ ही हकीक़त में कहीं खोया हूँ !
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मैं कैसे कहूँ उनसे कि लिपटो मुझसे
जबकि मेरी परछाईं भी मुझसे दूर खड़ी होती है !
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परछाईं भी मेरी तो मौसम परस्त है
रौशनी हो ऊपर तो ही ये साथ निभाती है !
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अंधेरों में ना देगी साथ मेरी परछाईं भी ,
वो भी बस उजालों में साथ नज़र आती है !
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रवि ; अहमदाबाद : 23 जुलाई २०११