ताल !
मैं कौन हूं
मैं कहाँ से हूं
इस सवाल का मैं वजूद हूं ।
कभी दूर से
तो कभी पास से
मैं ख़ुद में सदा मौजूद हूं ।
चाहे वफ़ा करे
या फिर जफा करे
मेरा ज़मीर तो मेरे संग है ।
तो क्या हुआ
जो ये ग़र कभी
बेइन्तहा ही मुझ से तंग है ।
मैं क्या करूं
और क्यूँ मैं करूं
क्या ज़मीर की मैं आवाज़ हूं ?
या वो सुनूं
जो मेरा दिल कहे
क्योंकि मैं तो उसका साज़ हूं ?
दिल और ज़मीर
है दोनों की ज़िरह
या फिर उनकी कोई चाल है ?
क्या बज रहा
यूंही उनके बीच में
या मेरी ये सच्ची ताल है ?
रवि ; अहमदाबाद : १४ जून २०१२