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जब कभी
मैं
सुधियों की लहरों में
तैरते तैरते थक जाऊं
और
किसी साहिल से जा टकराऊं !
या फिर
कोई ख़ामोश सितारा बनकर
टूटते हुए
आसमान से धरती पर आऊं !
जब कभी
उन सपनों की
अनगिनत लड़ियों को तोड़कर
मैं
तुम्हारे बीच आऊं और मुस्कुराऊं !
या फिर
अपनी आखों के
आंसुओं को
पलकों के पीछे छुपाकर
मैं तुम्हे हंसाऊं !
जब कभी
मैं
उन यादों के
अटूट बन्धनों को भूलकर
तुम्हारे बीच आऊं
और
ख़ुद को भुलाऊं !
तब उस दिन
तुम
हँसना
खिलखिलाना
ठहाके लगाना
मेरी याददाश्त पर
और …
मेरी मज़ाक उड़ाना
लेकिन …
मुझे ग़लत ना समझना
कभी भूलकर भी
उसे
मेरी ज़िन्दगी का नाम ना देना
क्योंकि ..
वो मैं नहीं
मेरी लाश होगी !!

रवि ; रुड़की १९८२