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देखता हूँ जब मुड़ कर

जिंदगी की सलवटों को

और अनगिन गिरहों को

जो लगतीं थीं रोज़

औ खुलती थीं रोज़

जो सोती थीं रोज़

औ जगती थीं रोज़

लिए अधखुली पलकें

वो अनगिनत झलकें

पर ना ही सुलझीं कभी

और हैं आज भी अभी

बनती बिगड़ती हैं

हंसती झगडती हैं

ना सिमटती कभी

ना ही बताती सभी

अपना छोर वो कभी

बस बनती जाती हैं

और मुझे उकसाती हैं

और मैं हमेशा ही –

अपनी कोशिश करता हूँ

उन्हें खोल जीता मरता हूँ

बनता हूँ और बिगड़ता हूँ

एकदम चुक जाता हूँ

पर छोर नहीं पाता हूँ

कौन है इनकी वज़ह

या फिर हैं ये बेवज़ह

पर झांकता हूँ जब

अपने ही गिरहबान में

विरुद्ध अपनी शान में

लेता हूँ खुद को जकड़

हूँ सारी गिरहों की जड़

जो हुआ वो सब मेरा है

जो किया वो भी घेरा है

मैं ही लगाता हूँ गिरह

और फैलाता हूँ जिरह

फिर लिए मासूमिअत

दिखाता हूँ मैं खोलता हूँ

शायद ऐसे ही बोलता हूँ

गिरह को मैं ही बोता हूँ

फिर खोल खुश होता हूँ

ये रोज़ रोज़ होता है

मेरा ज़मीर सोता है

मैं फिर दोष देता हूँ

दूसरों को ही रोता हूँ

अपना गिरेहबान बचाता हूँ

बाकी सबको ही सताता हूँ

बस इसी में जिया जाता हूँ !!

रवि , गुडगाँव , १८ फ़रवरी २०१०