ग़र समय ही इतना थोड़ा था !
नहीं पता था मुझे कभी भी
ऐसा कब कैसे होता होगा
जो गुज़रा जीवन बरसों में
यूँ पल में कैसे खोता होगा !
नहीं सोचा था कभी उसे
दिनों को ऐसे जीना होगा
आँखों में गुज़रे बरसों को
आंसू से अपने धोना होगा !
बिखर गये वो सारे पल
जिनको उसने यूँ जोड़ा था
जीवन के उस कल्पवृक्ष से
एक एक करके तोड़ा था !
यदि टूटना था फिर उनको
क्यूँ ऐसा सरगम जोड़ा था
दिया स्वप्न आँखों में उसकी
ग़र समय ही इतना थोड़ा था !
रवि , अहमदाबाद , २९ मई २०११