काश ! मैं गधा होता !!
काश ! मैं गधा होता !!
तो इंसानी पचड़ों में ना पड़ा होता !!
मालिक का हमेशा वफादार होता ,
मिटटी का वज़न दिन रात ढोता ,
हमेशा ही सुनता बातें मैं उसकी ,
और उसके इशारे पर खड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
ना दूसरों के घरों को कभी तोड़ता ,
उनका ढोकर सामान उन्हें जोड़ता ,
ढोकर बालू इंट मैं किसी एक का ,
किसी दूसरे के घर चल पड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
ना हँसता और ना ही कभी मैं रोता ,
अपने जीवन में हमेशा ही मैं खोता ,
ग़र चाहता कभी खुद से मैं बोलना ,
तो मिट्टी में जा कहीं हुन्दड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
इस इंसानी चूहा दौड़ में ना दौड़ता ,
ना संयम अपनी डोर का मैं तोड़ता ,
गर ना संभलता मैं अपने आप कभी ,
तो गले में एक बांधा लकड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
दिखता वैसा सदा जैसा मैं होता ,
इंसानी दिखावे में नहीं मैं खोता ,
ढक कर बदबू अपने जिस्म की ,
ना इत्र बालों में मैने जड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
ना मानता बुरा कहीं उसका कभी ,
जब भी करते मेरी आलोचना सभी ,
सुनकर तब कितनी भी कड़वी बातें ,
ना मूड यूँ मेरा कभी बिगड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
कभी मेरी चतुराई पर सवाल होता ,
पर ना कभी निष्ठां पर बवाल होता ,
कभी भी किसी दोस्त की पीठ में ,
ना चाकू भोंक मैं भाग खड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
सबके राजों का मैं राजदार होता ,
अपने लफ़्जों का मैं वफादार होता ,
कभी किसी दोस्त की आस्तीन में ,
ना सांप बनके मैं कभी चढ़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
इतिहास ना विवाह का भूला होता,
सदियों के रिवाज़ में ना झूला होता,
दूसरों या अपने ही दिल के कहे पर ,
ना भूले से घोड़ा मैं कभी चढ़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
हूँ उतना व्यथित मैं जितना सोचता ,
देखकर आदमियत दिल कचोटता ,
मैं क्यूँ रहूँ पड़ा सदा बन के आदमी ,
काश मैं गधा कहीं बन खड़ा होता !
काश ! मैं गधा होता !!
रवि ; गुड़गाँव : २९ सितम्बर २००९