क़हर का अंजाम हमेशा , क़हर ही होता है ,
तो क्यूँ ज़हर ये इसां , क़ुदरत में बोता है ?
और जब टूटती हैं हदें , क़ुदरत के सब्र की ,
फिर क्यूँ क़हर से घबरा , इंसा यूँ रोता है ?

रवि ; दिल्ली : २२ जून २०१३