एक मुट्ठी आसमान !!
मुझे याद है
मुट्ठी भर आसमान की चाहत में
वो हथेली बंद हो गयी थी !
और सचमुच –
वो नीला आसमान
उस हथेली में सिमट आया था !
क्योंकि –
वो नीला आसमान भी
उन उँगलियों की कोमलता
महसूस करना चाहता था
वो उस हथेली में
जीवन का दर्पण देखना चाहता था !
लेकिन ना जाने क्यूँ ?
हथेली ने सोचा –
कहीं ये नीला आसमान
मुट्ठी में दबकर काला ना हो जाये !
और ..
मुट्ठी खुल गयी
आसमान हथेली से फिसलता रहा
वो चाहकर भी रुक ना सका
और ..
वो मुट्ठी भर आसमान खो गया !
आज एक बार फिर
दोनों समीप हैं
लेकिन अब चाहते हुए भी
हथेली मुट्ठी नहीं बन सकती
क्योंकि अब
उस सीधी सपाट हथेली पर
किसी का बसेरा है !
आसमान क्या करे ?
हथेली के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं !
हथेली और आसमान
दोनों की मजबूरी
दोनों ही हैं परेशान !
एक तनहा हथेली
एक अस्तित्वहीन आसमान !!
रवि ; रूड़की : सितम्बर १९८१