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वो ख़्वाबों के सारे महल ढह गए ,
हसरतें ही बचीं ज़िन्दगी के लिए ,
अब जीने की कोई उमंगें नहीं ,
ज़िन्दगी भी नहीं ज़िन्दगी के लिए !

रवि ; लखनऊ : मार्च १९८०