मैं चला जब उनके घर से , तो उनके लिये जहान माँगा ,
पलट कर उन्होने मुझसे बस , थोड़ा और सामान माँगा !

हो चली जब उम्र से गहरी , हाथों की लकीरें मेरी ,
छुड़ाकर हाथ अपना मुझसे , मेरा तब गिरहबान माँगा !

सीने पे दी थी जो चोट मेरे , रक़ीबों ने उनकी ख़ातिर कभी ,
इशारे से हाथों के उन्होंने , वापस वो उसका निशान माँगा !

क़समें दिलाईं सारी वफ़ा की , निभाया जिन्हे था बरसों मैने ,
मुस्कुरा के उस दिन उन्होंने , बस एक और इम्तिहान माँगा !

भूल जाऊँ यादों को अपनी , हमने गुज़ारी थीं जो कभी ,
और उन्हें भी याद ना आऊँ , ये आख़िरी अहसान माँगा !

रवि : दिल्ली ; २७ सितम्बर २०१३