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देखा नहीं कभी उसे ,
और सुना भी नहीं ,
पकडा नहीं कभी उसे ,
और छुआ भी नहीं ,
बस देखी है उसके चेहरे की किताब ,
और पढ़ा है उसके लफ्जों का हिसाब ,
फिर क्यूँ खींचता है उसका अहसास ,
और आता है उसका वजूद मेरे पास ,
कभी हूँ उदास कि वो मिली नहीं ,
तो कभी हैरान कि मिली तो सही ,
उससे है अहसास इंतज़ार का ,
और इंतज़ार की खट्टी मिठास का ,
उसके अहसास से हुआ है ये अहसास ,
कि उसकी खुशबु है मेरे बहुत पास !

… रवि , २७ अगस्त २००९ , गुडगाँव

“चेहरे की किताब = facebook”

ये एक मित्र की सच्ची कहानी है,
फर्क सिर्फ कि ये मेरी जुबानी है !

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Dekha nahin kabhi use,
Aur suna bhi nahin,
Pakda nahin kabhi use,
Aur chua bhi nahin,
Bas dekhi hai uske chehre ki kitab,
Aur padha hai uske lafzo ka hisaab,
Phir kyun kheenchta hai uska ahsaas,
Aur aata hai uska vazood mere paas,
Kabhi hoon udaas ki wo mili nahin,
To kabhi hairaan ki mili to sahi,
Usase hai ahsaas intezaar ka ,
Aur intezaar ki khatti mithaas ka ,
Uske ahsaas se hua hai yeh ahsaas,
Ki uski khushbu hai mere bahut paas !