1780833_10204865236465017_8288205282682748912_n

हसरतों से भरी आँखे सबकी
ख़्वाहिशों से भरे प्याले हैं
तनहाईयां से लिपटी रूहें
पर नाचते मतवाले हैं
सँवरने के ढंग हैं कितने
पर दिल बहुतों के काले हैं
बेनियत अपनी भरने को
छीने ग़रीबों के निवाले हैं
चैन ना मिलता कहीं भी
दौड़ते पैरों में पड़े छाले हैं
ज़रूरतों को अपनी अपनी
सभी सरों पर संभाले हैं
कहने को बहुत यारी है
और वादों के रिसाले हैं
पर पीठ पीछे दोस्तों के
बस छुरी को निकाले हैं
क्या हो गया है जमाने को
क्यूँ ख़ाली प्यार के हाले हैं
सामान से घर भरते हैं सब
पर रिश्तों को तरसते घरवाले हैं !