उस पत्ते की
कोख से निकलकर
हवा का वो झोंका
ठिठकता है
रूकता है
सम्भलता है
फिर
बहता है
कभी होशवास सा
तो
कभी मदहोश सा
कभी अहसास सा
तो
कभी बदहवास सा
कभी देवता सा
तो
कभी गुनहगार सा
कभी सितमग़र सा
तो
कभी शर्मसार सा
कभी धड़कन सा
तो
कभी साँस सा
कभी आँसू सा
तो
कभी मुस्कान सा
कभी सिसकी सा
तो
कभी किलकारी सा
कभी झिझक सा
तो
कभी बेहिचक सा
बहता है
और छूता है
उन तमाम हसरतों को
जो रोज़
लोगों की शक्ल में
सड़कों पे निकलती हैं
या फिर
बैठ कर बरामदे में
ख़ुद ही सँवरती हैं
या फिर
तनहाई की बाहों में
ख़ुद से ही सम्भलती हैं
हँसती हैं रोती हैं
ख़ुद में ही खोती हैं
ख़रीदती हैं बिकती हैं
घुटती हैं सिमटती हैं
खनकती हैं पिघलती हैं
नाचती हैं गाती हैं
संग अपने ये नचाती हैं
रोज़ रात को
थककर सोती हैं
पर सुबह
फिर से मचलती हैं
खुलती हैं
बन्धती हैं
बनती हैं
बिगड़ती हैं
मरती हैं
दफ़्न होती हैं
पर
मरके भी
फिर से पनपती हैं
और लोगों को
अपनी आग़ोश में लेकर
एक बार फिर से
चलती हैं
भागती हैं
मचलती हैं
बहकती हैं
ये हवा का झोंका
छूकर हसरतों को
अहसास दिलाता है
उनकी ज़िन्दगी का
जो चलती है
हर रोज़ यहाँ
बिना रूके
बिना थके
अपनी हसरतों के लिये !
ज़िन्दा हैं हसरतें
क्योंकि
ज़िन्दा है आदमी
और
ज़िन्दा है आदमी
क्योंकि
ज़िन्दा हैं हसरतें !!

रवि ; मुम्बई : २ अगस्त २०१३