मेरे ही गिरहबान से निकलती है हर गिरह ,
पर करता हूँ अपने आप से मैं ही ये जिरह ,
नहीं हूँ मैं वज़ह इसकी कोई और ही होगा ,
मढ़ता हूँ किसी और के सर ये दोष बेवज़ह ,
चला है बेरोकटोक ये सिलसिला इसी तरह ,
ज़ालिम है ये बड़ा दिल मेरी मानता ही नहीं ,
है चाहे रहना सफेदपोश नहीं चाहता सुलह ,
कुछ भी हो जाए मगर मैं रहूँगा अब यूँ ही ,
ऊपर से साफ़ गिरहबान छुपाये हर गिरह !!

रवि , ६ फ़रवरी २०१०