ज़िन्दगी में इश्क़ का अब , एक फ़साना चाहिये ,
मिट गये हैं फ़ासले अब , पास आना चाहिये ।

ख़्वाब में देखा था जब , दूर से चाहा तुझे ,
पतझड़ों में भी कभी तो , फूल आना चाहिये ।

आसमां में सुर्ख़ियाँ थीं , चाँद भी खिलता न था ,
सूखे होठों पे कभी तो , जाम आना चाहिये ।

पलकों ने जिनको छुपाया , दोस्तों से आज तक ,
आँखों से मेरी उन्हे अब , मुस्कुराना चाहिये ।

देखते हैं सब तुझे पर , जानता कोई नहीं ,
वक़्त है अब तो तुम्हें , अपना बनाना चाहिये ।

ज़िन्दगी में इश्क़ का अब…..

रवि ; दिल्ली : २७ अप्रैल २०१३