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याद है मुझे वो वक़्त
जब मेरे दिन और रात
बिताये नहीं बीतते थे
ज़िन्दगी का एक एक पल
उम्र से भी बड़ा था
क्योंकि तब मेरे पास
वक़्त ही वक़्त था !
फिर अचानक –
ये अहसास हुआ कि
वक़्त बहुत कम है !
उस दिन से मेरे
दिन लम्बे लम्बे डग भरते हैं
और रातें
रातें शायद दौड़ती हैं !
अब तो ज़िन्दगी भी
लगती है बहुत छोटी सी
सिर्फ़ दो चार दिनों की
शायद ….
वक़्त बहुत कम है !!

रवि ; रुड़की : जनवरी १९८१